किस्सा कुर्सी का: पार्षदों के चुने नपाध्यक्ष पूरा नहीं कर पाते हैं कार्यकाल
967 में पहली बार नपाध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास पास
कवर्धा
नपाध्यक्ष ऋषि शर्मा के पद से इस्तीफा देने के चलते अध्यक्ष की कुर्सी खाली हो गई है। अप्रत्यक्ष चुनाव के चलते ऋषि का अध्यक्ष बने थे। यानी उसे जनता ने नहीं, बल्कि बहुमत पार्षदों ने अपना नेता चुना था।
खास बात ये है कि नगर पालिका में जब भी अप्रत्यक्ष रूप से अध्यक्ष चुने गए, वो शहर सरकार 5 साल नहीं चली। अविभाजित मध्यप्रदेश में 1995 के बाद यह दूसरा मौका है, जब इस तरह का उलट-फेर देखने का मिला है। इतिहास देखें, तो वर्ष 1995 में नपाध्यक्ष का चुनाव बहुमत दल के पार्षदों ने किया था। लेकिन 5 साल में ही 3 अध्यक्ष बदल गए थे। सितंबर 1995 में हुए अप्रत्यक्ष चुनाव में बहुमत दल के पार्षदों ने पुष्पा देवी गुप्ता को नपाध्यक्ष चुना था, लेकिन महज 8 महीने में ही बदल गईं। मई 1996 में दोबारा अप्रत्यक्ष चुनाव हुए और राजेन्द्र सलूजा को नपाध्यक्ष बने। वे भी जनवरी 1999 यानी करीब 3 साल तक कुर्सी पर बने रहे। जनवरी 1999 में तीसरी बार अप्रत्यक्ष चुनाव होने पर निर्मला बोथरा अध्यक्ष बन गईं, जो 11 महीने तक पालिका सरकार संभाली।
आजादी से पहले 5 मार्च 1933 को नगर पालिका कवर्धा का गठन हुआ। अब्दुल रहीम खान पहले नपाध्यक्ष मनोनीत हुए थे। वर्ष 1965 तक निर्धारित अवधि में चुनाव होते रहे। पहली बार 1967 में तत्कालीन नपाध्यक्ष प्यारेलाल गुप्ता के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। उनके हटने पर ईश्वरी प्रसाद श्रीवास्तव नपाध्यक्ष बने। दो साल बाद सितंबर 1969 में उनका कार्यकाल खत्म हो गया। अब फिर नपाध्यक्ष की कुर्सी खाली है।
अप्रत्यक्ष तरीके से नपाध्यक्ष के चुनाव में कई खामियां दिखीं। इसके चलते वर्ष 1999 में अविभाजित मध्यप्रदेश के तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने प्रत्यक्ष प्रणाली से नपाध्यक्ष चुनाव का फैसला लिया था। इसके चलते कवर्धा में जनवरी 2000 को हुए नगरीय निकाय चुनाव में अध्यक्ष पद के लिए प्रत्यक्ष मतदान हुआ, जिसमें आशा तम्बोली अध्यक्ष चुनी गईं। इसके बाद 2005, 2010 और 2015 में भी प्रत्यक्ष तरीके से नपाध्यक्ष का चुनाव हुआ था। अभी मौजूदा परिस्थिति में आगे क्या होगा इसका नगरवासियों को इंतजार है।