पंथ- प्रेत बने पितरों को मोक्ष दिलाने आते हैं लोग:मुक्ति के लिए 5 लाख खर्च; मरे हुए लोगों की तस्वीरों का ढेर गयाजी11 मिनट पहले लेखक: मनीषा भल्ला
बिहार का गयाजी। यहां पितृपक्ष मेला चल रहा है, जो शनिवार को खत्म हो जाएगा। इस जगह पर आना तो मुझे पितृपक्ष की शुरुआत में था, लेकिन निजी कारणों से अब पहुंच पाई हूं।
शहर में कदम रखते ही मुझे किसी ने बताया कि मुख्य शहर से 15 किलोमीटर दूर पिंडदान के लिए धर्मारण्य नामक वेदी है। इस वेदी पर हर कोई पिंडदान नहीं कर सकता।
कारण पूछने पर बताया गया कि यहां पिंडदान करने के लिए वे आते हैं, जिनके परिवार के लोग मरने के बाद ‘पितृ प्रेत’ बनकर परेशान कर रहे हैं। उनकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती, वो घर में ही रहकर अपनों को परेशान करते हैं।
मैं इस पिंडदान की विधि देखना चाहती थी। मैंने मुख्य शहर से एक बैटरी रिक्शा किया और इस स्थान को देखने के लिए निकल गई। जाते ही देखा कि जगह-जगह पर अलग-अलग परिवार पिंडदान कर रहे हैं।
लोकल व्यक्ति ने बताया कि यह पिंडदान थोड़ा-सा अलग है। इसमें तीन कलश हैं, जिसमें से एक कलश के ऊपर काले रंग के कपड़े में बंधा सूखा नारियल रखा है।
मैं पूजा विधि देख ही रही हूं कि एक महिला की जोर-जोर से हंसने की आवाज आती है। मोबाइल पर ऑन वीडियो मोड के साथ मैं उस ओर जाती हूं। कैमरा ऑन देखते ही वहां मौजूद सारी की सारी पब्लिक मुझे कहती हैं – कैमरा फौरन बंद करो। नहीं तो यह बला तुम्हारे ऊपर आ जाएगी।
इस बीच एक आदमी के चिल्लाने की आवाज आती है। वह अपने स्थान पर खड़ा हुआ कांप रहा है। फिर तेजी से लाल चुनरी की तरफ भागता है। यहां भी मेरा वीडियो कैमरा ऑन है, इस पर वह मुझे घूरने लग जाता है। मैं खुद ही वीडियो बंद कर देती हूं।
उस भीड़ में से एक आदमी मेरी तरफ आता है और कहता है कि मैडम आपको यहां पर बाल बांधकर आना चाहिए। यहां खुले बाल नहीं आया जाता है। इस बात का तर्क मुझे समझ नहीं आया और मैं उस स्थान से हट गई।
धर्मारण्य क्या है? मेरे मन यह सवाल उठा।
इसके जवाब में पंडित राधावल्लभ शरण पांडे कहते हैं, ‘धर्मारण्य गयाजी कि उन 54 वेदियों में से एक है जहां पिंडदान करने के लिए वे आते हैं जिनके घर में किसी की अकालमृत्यु हुई है और उन्हें मोक्ष नहीं मिला है।
यह वह स्थान है जहां धर्मराज यानी यमराज ने महादेव को प्रकट करने के लिए पूजा की थी। इसलिए धर्मराज के नाम पर इसका नाम धर्मारण्य पड़ा।’
राधावल्लभ शरण पांडे ने बताया कि गयाजी और प्रेत शांति को लेकर एक और कहानी महाभारत काल की प्रचलित है। वो यह कि राजा परीक्षित जब अपनी मां उत्तरा के गर्भ में थे तब उन्हें ब्रह्मास्त्र लग गया था। इसे भगवान कृष्ण ने निरस्त किया था। श्रीकृष्ण ने उत्तरा से उनके बेटे के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध करवाया था।
त्रिपिंडी श्राद्ध क्या है?
‘त्रिपिंडी श्राद्ध का मतलब है पिछली तीन पीढ़ियों के पूर्वजों का एक साथ पिंडदान करना। इस श्राद्ध में ब्रह्मा, विष्णु और शिव की प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा करके पूजा की जाती है।’
इसके बाद मुझे पता चला कि पिंडदान के लिए यहां मुख्य 54 वेदियां हैं। भूतकाल में यह कुल 376 वेदियां थीं, लेकिन समय के अनुसार किसी वेदी के तालाब पर कब्जा हो गया तो कहीं भू माफिया ने मकान बना दिए। अब कुल 54 वेदियां बची हैं।
अब मैं फल्गु नदी के तट पर हूं। मुख्यतौर पर पिंडदान विष्णुपद मंदिर के पास फल्गु नदी के किनारे पर हो रहा है। यहां पैर रखने तक की जगह नहीं। भीड़ इतनी कि कोई होटल, कोई धर्मशाला खाली नहीं है । मात्र 1000 रुपए तक का होटल 3,000 रुपए में मिल रहा है। वो भी किस्मत साथ दे तब, नहीं तो रात जैसे-तैसे गुजारो।
फल्गु नदी के किनारे स्थानीय प्रशासन ने पंडाल लगाए हैं। मुर्गी के दड़बों की तरह यहां हर कोने में बैठे लोग पितरों की पूजा कर रहे हैं। भगदड़ से बचने के लिए सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम हैं।
जिसका जैसा सामर्थ्य वह वैसा पिंडदान कर रहा है। पंडा महेश गुप्ता अपने जजमानों के साथ बिजी हैं। इस बीच मेरी उनसे थोड़ी बहुत बातचीत होती है। वो बताते हैं कि विदेशी भी अपने पूर्वजों का पिंडदान करने यहां आते हैं। कुछ ही दिन पहले यूक्रेन से एक लड़की पिंडदान के लिए यहां आई थी।
मारवाड़ी समुदाय के लोग पिंडदान में सबसे ज्यादा पैसे खर्च करते हैं। वो कुल 17 दिन का श्राद्ध करते हैं, जिसमें सात से दस लाख रुपए तक का खर्च आता है।
पंडा महेश गुप्ता से बातचीत के बाद जैसे आगे बढ़ती हूं मैंने देखा पिंडदान करने वाले कुछ लोगों के पास जौ के आटे की लोइयां रखी हुई हैं। यह लोइयां चावल और गेंहू के आटे से भी बन सकती हैं। लोइयों में काले तिल भी मिले हुए हैं। इसके अलावा फल, रंग, बर्तन, कपड़े, चावल, दूध और सत्तू रखा है। दीपक जल रहे हैं और पंडित मंत्र पढ़कर पिंडदान करवा रहे हैं।
जिन लोगों के पास ज्यादा दान करने का सामर्थ्य नहीं है, वो लोग फल्गु नदी में स्नान कर हाथ में पानी लेकर तर्पण कर रहे हैं।
पंडित जी के अनुसार दान देने वाले यहां गऊ दान और भूमिदान भी करते हैं। अपनों के मोक्ष के लिए 500 रुपए से लेकर 15 लाख रुपए तक श्राद्ध पर खर्च कर देते हैं।
हालांकि, इन दिनों में हरिद्वार, काशी, प्रयागराज, मथुरा, मायापुरी, उज्जैन और अयोध्या, कुल सात जगहों पर भी श्राद्ध होता है, लेकिन दावा है कि गयाजी का महत्व सबसे श्रेष्ठ है।
गयाजी में भी बहुत कम लोग हैं जो 54 वेदियों पर जा पाते हैं। मुख्यत 90 फीसदी लोग फल्गु नदी के किनारे ही पिंडदान कर लेते हैं। कहते हैं कि इस पवित्र नदी को ब्रह्मा धरती पर लेकर आए थे। इसे भगवान विष्णु की जलमूर्ति भी माना जाता है।
यहां हर राज्य के पुरोहित मौजूद हैं। यहां आने से पहले लोग अपने-अपने राज्य के पुरोहित का पता लगा लेते हैं। लगभग एक महीने पहले फोन पर उनसे संपर्क कर लेते हैं। जैसे मैं हरियाणा भवन में पंडित महेश गुप्ता से मिली।
उन्होंने मुझसे मेरा गोत्र और पुश्तैनी मूल राज्य का नाम पूछा। मैंने बताया तो वह कहने लगे कि आप साथ लगते पंजाब भवन में चले जाओ। वहां एक दाढ़ी वाले बाबा होंगे वहीं आपके पूर्वजों का पिंडदान और श्राद्ध करेंगे। (हालांकि मैंने यहां कोई ऐसी पूजा या कोई कर्मकांड नहीं किया बस व्यवस्था समझने के लिए पूछा था।)
पंडित महेश गुप्ता ने बताया कि अधिकतर उत्तर प्रदेश से आए लोग तीन या 9 दिन का श्राद्ध करवाते हैं, बंगाल, गुजरात, सिंध, नेपाल, दक्षिण भारत, महाराष्ट्र से आए लोग एक दिन का श्राद्ध करवाते हैं। पितृपक्ष के अलावा हर अमावस्या पर भी यहां लोग पिंडदान के लिए आते हैं।
ज्यादा जानकारी के लिए मैं ‘मंत्रालय रामाचार्य वैदिक पाठशाला’ के मंत्रालय स्वामी राजा के पास जाती हूं। वह मूल रूप से तो कर्नाटक के हैं लेकिन गया में पैदा हुए और पले-बड़े। उनके यहां लगभग 2,000 विद्यार्थी इस कर्मकांड को सीखने की पढ़ाई कर रहे हैं।
जब मैं पहुंची वह एक पूजा में व्यस्त थे। मुझे अंदर बुलाया तो मैंने देखा कि वह मोबाइल के जरिए एक ऑनलाइन पूजा कर रहे हैं। कहते हैं कि ऑस्ट्रेलिया में उनके जजमान हैं, जो कि यहां आ नहीं सकते इसलिए ऑनलाइन पितृ श्राद्ध पूजा करवा रहे हैं।
पूजा खत्म होते ही मैंने उनसे पूछा, देश के दूसरे हिस्सों में भी तो श्राद्ध की पूजा होती है, फिर गयाजी में ही श्राद्ध की मान्यता क्यों?
मंत्रालय स्वामी राजा जवाब देते हैं, ‘जिस विषय को तुम सिर्फ दो-तीन दिन में जानना चाहती हो, उसे जानने के लिए विदेशों से लोग एक-एक साल के लिए मेरे पास रहने आते हैं। दो जापानी पिछले एक साल से गयाजी में भारतीय श्राद्ध, पिंडदान परंपरा को जानने के लिए मेरे आश्रम में रुके हुए थे। खैर, तुम्हारा पेशा ही ऐसा है, तुम्हें जल्दी है इसलिए बता देता हूं।’
उन्होंने बताया-
श्राद्ध। यह पितरों के लिए श्रद्धा से किया गया कार्य है। माना जाता है कि पितरों को जो भी देना है श्रद्धा से श्राद्ध में देना चाहिए। देश में जहां भी श्राद्ध कार्य होते हैं, वहां भी पंडित गयाजी का ध्यान करवाते हैं। यह ठीक वैसे ही है जैसे प्रयागराज में गंगा का महत्व दिया गया है, काशी में वहीं रहकर मुक्ति को महत्व दिया गया है।
मंत्रालय स्वामी आगे कहते हैं, ‘यहां विष्णु विराजमान हैं इसलिए इस स्थान का पिंडदान के लिए महत्व है। यहां पितृलोक की चुंबकीय शक्ति है। इस इलाके में कहीं भी श्राद्ध, दान, पूजा करें वह पितरों तक पहुंचता ही है। यहां एक अलग ऊर्जा है।
वास्तु से निष्ठ भारत देश में अगर गयाजी में श्राद्ध किया जाता है तो सूर्य और अग्नि हमारे कार्यों की ऊर्जा को पितरों तक पहुंचाने का काम करते हैं।’
अब पढ़ें कहानी…
सीता मइया की वजह से महिलाएं भी यहां करती पिंडदान
सीता ने अपने ससुर राजा दशरथ का पिंडदान किया था, इस बारे में वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग है। भगवान राम, सीता मइया और लक्ष्मण वनवास पर थे। पितृ पक्ष के महीने में तीनों श्राद्ध करने के लिए गयाजी पहुंचे।
वहां ब्राह्मण ने उन्हें श्राद्ध के लिए जरूरी सामग्री लाने को कहा। राम और लक्ष्मण सामग्री लेने चले जाते हैं। उसी बीच आकाशवाणी हुई कि तुरंत पिंडदान करो, यही इसका शुभ मुहूर्त है।
तब ब्राह्मण देव ने सीता मइया से पिंडदान करने को कहा। उनके पास सिर्फ बालू था, जिससे उन्होंने पिंडदान कर दिया। उन्होंने फल्गु नदी के किनारे बालू का पिंड बनाया और वटवृक्ष, केतकी फूल, नदी और गाय को साक्षी मानकर स्वर्गीय राजा दशरथ का पिंडदान कर दिया। उसके बाद से महिलाओं को श्राद्ध कर्म करने का अधिकार मिला।
अंत में मंत्रालय स्वामी कहते हैं, ‘200 प्रकार के पितृदोष से मुक्ति पाने के लिए जो लोग गयाजी में नहीं आ सकते हैं वह घर पर भी गयाजी और विष्णु भगवान का ध्यान कर श्राद्ध कर सकते हैं।’