जनमंच

संजय कुमार का कॉलम : 2023 के विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए 2018 की तरह खतरे की घंटी सिद्ध हो सकते हैं

हाल के सालों में भाजपा को जैसी चुनावी सफलता मिली है, उससे इसमें संदेह नहीं है कि वह आज जनाधार के स्तर पर देश की सबसे वर्चस्वशाली पार्टी है। न केवल उसने बीते दो आम चुनावों में पूर्ण बहुमत पाया, 2024 के चुनावों के लिए भी दौड़ में सबसे आगे है। लेकिन 2023 में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के बारे में क्या? क्या कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा को चुनौती दे सकेंगी या क्या भाजपा सभी नौ राज्यों में जीत दर्ज करेगी, जैसा कि पार्टी अध्यक्ष ने हाल ही में दावा किया?

हाल ही में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति में पार्टी अध्यक्ष ने घोषणा की कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को और मजबूती देने के लिए भाजपा को 2023 में होने जा रहे सभी नौ विधानसभा चुनाव और 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना होगा। लेकिन सच ये है कि व्यापक जनाधार के बावजूद यह कल्पना करना कठिन है कि भाजपा सभी नौ राज्यों में जीत सकेगी।

कुछ राज्यों में उसे कांग्रेस से कड़ी प्रतिस्पर्धा मिलेगी, वहीं दूसरे कुछ राज्यों- विशेषकर पूर्वोत्तर में- उसे क्षेत्रीय पार्टियों की चुनौती का सामना करना पड़ेगा। चार बड़े राज्यों में से मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक में भाजपा को कांग्रेस से कड़ा मुकाबला करना होगा। राजस्थान में कांग्रेस की अंतर्कलह का लाभ जरूर उसको मिल सकता है।

2019 के आम चुनावों में भाजपा ने इन राज्यों में लगभग सभी सीटें जीत ली थीं। मध्यप्रदेश में वह केवल एक और छत्तीसगढ़-कर्नाटक में दो-दो सीटों पर हारी। कर्नाटक में वह गठबंधन सहयोगियों के साथ चुनाव लड़ रही थी। लेकिन भाजपा को याद रखना चाहिए कि पिछली बार 2018 में जब विधानसभा चुनाव हुए थे, तो भाजपा को इन चारों राज्यों में हार का सामना करना पड़ा था।

मतदाताओं ने 2018 में कांग्रेस को बढ़-चढ़कर वोट दिए थे, अलबत्ता 2019 के लोकसभा चुनावों में उन्हीं वोटरों ने भाजपा को चुना। ऐसे में 2023 के विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकते हैं, क्योंकि उनमें स्थानीय मुद्दों का बोलबाला रहेगा, जैसा कि हाल ही में हिमाचल प्रदेश में हुआ।

2018 में भाजपा ने त्रिपुरा में वामदलों को हराकर जीत दर्ज की थी और आईपीएफटी के साथ गठबंधन-सरकार बनाई थी। कांग्रेस कभी त्रिपुरा में प्रमुख विपक्षी दल हुआ करती थी, लेकिन उसका खाता भी नहीं खुल सका था और उसे मात्र 1.7 प्रतिशत वोट मिल पाए थे।

यहां यह भी गौरतलब है कि अलबत्ता त्रिपुरा में वामदलों का सफाया हो गया था, लेकिन वे 44.3 प्रतिशत वोट पाने में कामयाब रहे थे। लेकिन इस बार त्रिपुरा में न तो वामदलों की वापसी के आसार दिख रहे हैं, न ही भाजपा सरकार वहां अधिक लोकप्रिय रह गई है। ऐसे में भाजपा त्रिपुरा को हलके में नहीं ले सकती। वहां उसे वामदलों से कड़ी टक्कर मिल सकती है।

तेलंगाना में टीआरएस- जिसे अब बीआरएस कहा जाता है- मजबूत बने हुए है, हालांकि वहां भाजपा का तेजी से उदय हो रहा है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि राज्य में हुए पिछले दो विधानसभा चुनावों में टीआरएस ने दूसरी पार्टियों का लगभग सूपड़ा साफ कर दिया था। 2018 में उसे 46.8 प्रतिशत वोट मिले और 119 में से 88 सीटें जीतने में वह सफल रही थी।

तब कांग्रेस दूसरे पायदान पर रही थी, लेकिन उसके बाद से राज्य में उसका जनाधार घटा है, इसलिए इस बार मुख्य मुकाबला भाजपा और बीआरएस के बीच रह सकता है। चूंकि कांग्रेस का तेलंगाना में उस तरह से सफाया नहीं हुआ, जैसे उसके पड़ोसी आंध्र प्रदेश में हुआ है, इसलिए भाजपा और कांग्रेस के बीच बीआरएस-विरोधी वोटों का बंटवारा होगा और यह बीआरएस के लिए फायदेमंद रहेगा। भाजपा वहां चुनाव जीतने की उम्मीद फिलहाल तो नहीं कर सकती।

मेघालय व मिजोरम ऐसे दो राज्य हैं, जहां भाजपा की उपस्थिति नगण्य है। 2018 में भाजपा ने मेघालय में 9.6 प्रतिशत वोट पाए थे और दो सीटें जीती थीं। वह नेशनल पीपुल्स पार्टी यानी एनपीपी के साथ गठबंधन करके सरकार का हिस्सा बन गई थी।

जब एनपीपी ने 2023 का चुनाव अकेले लड़ने की घोषणा की तो उसके चार निर्वाचित विधायक भाजपा में शामिल हो गए। लेकिन इससे भाजपा एनपीपी को चुनौती देने की स्थिति में नहीं आ गई है। इसी तरह मिजोरम में भी भाजपा सत्तारूढ़ मिजो नेशनल फ्रंट को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। वहां वह 2018 में एक ही सीट जीत सकी थी। नगालैंड को छोड़ दें तो पूर्वोत्तर में कड़ी मेहनत के बावजूद भाजपा का जनाधार मजबूत नहीं हो सका है।

2023 के विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए मिले-जुले साबित हो सकते हैं। वह नौ में से छह राज्यों में जीत दर्ज कर सकती है। तेलंगाना, मेघालय और मिजोरम में जीतना उसके लिए हाल-फिलहाल सम्भव नहीं लग रहा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

News Desk

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