एन. रघुरामन का कॉलम:अगली पीढ़ी के बेहतर कल के लिए सोशल पुलिसिंग व पैरेंटिंग हो

कल्पना करें, आप ट्रेन के इंतजार में रेलवे स्टेशन पर बैठे या खड़े हैं। आपके पीछे कुछ बातचीत हो रही है। एक बच्ची शांत भाव से मराठी में कुछ पूछ रही है। और तपाक से एक पुरुष (उसका पिता या चाचा हो सकता था) हिंदी में जवाब दे रहा था। इस विरोधाभास पर आपके कान खड़े होंगे या आप नजरअंदाज करेंगे कि दो लोगों के बीच की बात है, मैं क्यों शक करूं?
अगर आप दूसरी तरह की सोच रखते हैं तो आप एक बेहद संगीन अपराध होने दे रहे हैं। और अगर पहली तरह की सोच रखते हैं, तो शायद उस बच्ची और पुरुष के बीच हो रही बातचीत में सही समय पर दखल देने का इंतजार करेंगे। सिंहगढ़ एक्सप्रेस का इंतजार करते हुए अपनी ड्यूटी पर जा रहे बालभीम नानावरे ने बिल्कुल यही किया।
वह पीछे मुड़े और देखा कि वह आदमी बच्ची को खुश करने के लिए खिलौने दे रहा है। नानावरे ने बच्ची को देखा और अपनी सीट देने की पेशकश की और इस बीच उन्होंने उससे उसकी मां के बारे में पूछा। बच्ची ने बताया कि वो तो घर पर हैं।
फिर उन्होंने पूछा कि तुम्हारे साथ वह आदमी क्या तुम्हारा पिता है? और उसने कहां- हां। नानावरे ने जब उसका पता और मां का मोबाइल नंबर पूछा और तो उस व्यक्ति ने बच्ची को कुछ भी जानकारी ना देने का इशारा किया, ये देखकर नानावरे का शक गहरा गया। नानावरे आदमी को देखकर मुस्कुराए और खामोश रहे।
चंद सेकंड्स बाद जब वह आदमी कुछ लेने के लिए यहां-वहां हुआ तो नानावरे ने बच्ची को गेम खेलने के लिए अपना मोबाइल दिया और इस दौरान यूनिफॉर्म में अपनी तस्वीर दिखाई। तब बच्ची ने पूछा कि क्या आप पुलिसवाले हैं? नानावरे का हां में जवाब सुनकर बच्ची ने कहा कि वह आदमी उसका पिता नहीं है और उससे वादा किया गया है कि उसे बहुत सारे खिलौने वाली जगह ले जाया जा रहा है।
और इस तरह सादी वर्दी में मौजूद असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर नानावरे ने बिहार से चंद रोज पहले मुंबई आए 30 वर्षीय दयानंद कुमार शर्मा को धर दबोचा, जिसने मुंबई के उपनगरीय इलाके से एक 8 साल की बच्ची का अपहरण किया था।
बच्ची को ना तो माता-पिता का नंबर और ना ही पता याद था, हां एक मामा का नंबर याद था, जिससे संपर्क करके पुलिस ने माता-पिता को सूचित किया। एक दिन पहले माता-पिता द्वारा दर्ज कराई गुमशुदगी की रिपोर्ट से बच्ची की जानकारी का मिलान हो गया। और इस तरह त्वरित सोच वाले अधिकारी ने एक लड़की को अपहरणकर्ता के चंगुल से बचा लिया।
ऐसे वाकिए सिर्फ क्राइम सीन पर ही दिखाई नहीं देते बल्कि सामान्य परिस्थितियों में भी ऐसा होता है, हाल ही में मेरा इससे सामना हुआ। मैंने देखा कि कुछ स्कूली बच्चों का समूह एक युवा लड़के का यह कहते हुए मजाक उड़ा रहा था कि ‘मूंछें तो दिखने लगी हैं लेकिन तुम अभी भी ममाज़ बॉय हो।’
लड़कों के समूह को मुझ पर शक नहीं हुआ क्योंकि पिछले कुछ दिनों से मैंने शेव नहीं किया था, दरअसल हमारे परिवार में एक बुजुर्ग का निधन हो गया था। जब मैंने पूछा कि उसे क्यों सता रहे हो? तो उनमें से एक लड़के ने सिगरेट (मुझे शक था कि वह ड्रग्स है) दिखाते हुए कहा, ‘एक कश मारने को बोला और ये बोलता है इसकी मम्मी नाराज हो जाएगी।’ और सब हंसने लगे।
मुझे पता था कि लड़का हार मानने ही वाला था। मैं जानता हूं, आजकल ज्यादातर स्मोकर्स इन्हीं हालात में पहला अनुभव लेते हैं। मैंने उस लड़के को बचाया, माता-पिता को बुलाया और उस स्थिति में डटे रहने की उसकी काबिलियत को सराहा।
फंडा यह है कि अगर हम अपने बच्चों के लिए आने वाला कल खूबसूरत चाहते हैं तो सोशल पैरेंटिंग और सोशल पुलिसिंग को प्रोत्साहित करें। उन्हें मदद चाहिए, सलाह नहीं।